11.21.2011

देखकर यूं, शरीर नज़रों से


देखकर यूं, शरीर नज़रों से 
खींच दी इक लकीर नज़रों से
तजरुबा इश्क में, हुआ हमको 
हो गए हम फ़क़ीर नज़रों से.
यार, एहसास तक चला आया
सर्द आंखों का नीर नज़रों से.
देखते देखते ही वो ज़ालिम 
फेंक देता है तीर नज़रों से.
खुद को रांझा समझ लिया उसने 
लग रही है वो हीर नज़रों से.
खु़द को माहिर समझ लिया कैसे?
शेर कहते थे मीर नज़रों से.

11.08.2011

ज़िद पे अड़े हैं कुत्ते


आज कुछ बात है जो ज़िद पे अड़े हैं कुत्ते 
जाने क्यूं अपने ही मालिक पे चढ़े हैं कुत्ते
बज़्म अदबी तो नज़ाक़त से शराफ़त से भी 
उस मुहल्ले से मुहल्ले के लड़े हैं कुत्ते 
ये तो अच्छा है सनद् इनको नहीं मिल पाई
वरना एल.एल.बी. एल.एल.एम. पड़े हैं कुत्ते
देर तक दूर तक आई जो यहां कुछ बदबू
ऐसा लगता है बहुत पास सड़े हैं कुत्ते
आदमी आदमी का साथ भले दे न दे
यूं वफादारी में हर मील जड़े हैं कुत्ते
यार मालिक को बचाना है, मुसीबत भारी
बांध कर पट्टा अदालत में खड़े हैं कुत्ते
वोट की चाहतें दुनिया ही बदल देती हैं
लाख दुत्कारो  मगर चिकने घड़े हैं कुत्ते
गोद में उसकी रहे खेले हंसे जी भर के 
आज  लगता है कि आदम से बड़े हैं कुत्ते

11.01.2011

समझता खूब है वो भी बयान की कीमत


समझता खूब है वो भी बयान की कीमत
चुका रहा है जो अब भी ज़्बान की कीमत 
इसी मुकाम पे समझा तमाम रिश्तों को
लगा रहा हूं जब अपने मकान की कीमत
बड़ा ग़ुरूर, बड़ी हैसियत, बड़ी बातें
अकाल हो तो समझते हैं धान की कीमत
किसी ने माना किसी ने कभी नहीं माना
गिराई फिर भी सभी ने पुरान की कीमत
नहीं चला सके इक तीर भी निशाने पर
वही लगाते हैं अक्सर कमान की कीमत
लहू बहाओ भले रोज़-रोज़ कितना ही
तुम्हें चुकाना ही होगा क़ुरान की कीमत
तुम्हारे वास्ते इक वोट हैं महज़ अब भी 
लगा रहे हैं यहां पर वो जान की कीमत

कैसा है आज मौसम कुछ भी पता नहीं है


कैसा है आज मौसम कुछ भी पता नहीं है
है ईद या मुहर्रम कुछ भी पता नहीं है
सत्ता की चौधराहट ये वक्त है चुनावी
किसमें है कितना दमखम कुछ भी पता नहीं है
इस ज़िन्दगी ने हमको कुछ ऐसे दिन दिखाये
मन में खुशी है या ग़म कुछ भी पता नहीं है
सब सो रहे हैं डर के, अपनी अना के भीतर
बस्ती में गिर गया बम  कुछ भी पता नहीं है
रोने को रो रहे हैं हालात के मुताबिक
आंसू हुए क्या कुछ कम कुछ भी पता नहीं है
जीने को जी रहे हैं नायाब ज़िन्दगी सी
तुझसे कहें क्या हम दम कुछ भी पता नहीं है
शफ़्फ़ाक ज़िन्दगी की शफ़्फ़ाक सी ग़ज़ल है
शेरों में आ गया जम कुछ भी पता नहीं है

ज़िन्दगी बस एक ये लम्हा मुझे भी भा गया


ज़िन्दगी बस एक ये लम्हा मुझे भी भा गया
आज बेटे के बदन पर कोट मेरा आ गया.
भोर की पहली किरन बरगद तले झोंका नया
जिस्म सारा ओस की बूंदों से यूं नहला गया
हूं बहुत ही खुश बुढ़ापे में बहू-बेटों के संग
चाहतों का इक नया मौसम मुझे हर्षा गया
दुश्मनी मुझको विरासत में मिली थी, खेत भी 
क़ातिलों से मिलके लौटा गांवभर में छा गया
ये अलग है खिल नहीं पाया चमन पूरी तरह
मेरा जादू शाख़ पर कुछ सुर्खियां तो ला गया
बेवकूफी जल्दबाजी में चुना सरदार था
खेत की ही मेड़ जैसा खेत को ही खा गया

ज़रीदे में छपी है इक ग़ज़ल दीवान जैसा है..


ज़रीदे में छपी है इक ग़ज़ल दीवान जैसा है
ग़ज़ल का फ़न अभी भी रेत के मैदान जैसा है
मिला मैं उससे हां साया मेरा बढ़ता रहा आगे
सफ़र में हमसफ़र भी आजतक हैरान जैसा है
नहीं दिखते उछलते, खेलते, हंसते हुए बच्चे
मोहल्ला इस नई तहज़ीब में शमश्शान जैसा है
नज़र को देखकर ये दाद भी अच्छी नहीं लगती
मुकर्रर लफ़्ज़ तेरे होंठ पे इक दान जैसा है
नई बस्ती, नये मौसम मगर हूं कौल का पक्का
यहां पे गुफ़्तगू करना मुझे अपमान जैसा है
फिसल जाता है पल भर में चमक को देखकर पीली
तेरा ईमान भी लगता है बेईमान जैसा है.
रमारम, तकधिनक धिनधिन मुफाईलुन, फ़उलुन, फ़ा
हमारे वास्ते हर दिन नये अरकान जैसा है

बुज़ुर्गों का पसीना ही ज़मीनों से उगाता हूं..,.


बुज़ुर्गों का पसीना ही ज़मीनों से उगाता हूं
है जितना खर्च मैं उससे कहीं ज़्यादा कमाता हूं
कई सपने अधूरे रह गये थे मां की आंखों में
वो नज़रें सामने रखता हूं वो रिश्ते निभाता हूं
बड़े विश्वास से वालिद ने सौंपी थी मुझे पगड़ी
मैं उसकी शान में शोहरत तेरी कलगी लगाता हूं
ये कोई खेल है तो हार कर बैठा नहीं पल भर
बिगड़ते हैं तो फिर परिवार के रिश्ते जमाता हूं
मिली है सल्तनत खै़रात में जो चंद बरसों की 
बहू बेटों में उनके नाम के सिक्के चलाता हूं

बिजलियाँ