2.11.2012

ghazal sameeksha: ग़ज़ल कहना मुनासिब है यहीं तक

ghazal sameeksha: ग़ज़ल कहना मुनासिब है यहीं तक: ग़ज़ल के नये जिस्म को नये जेवर दिये हैं,डॉ.महेन्द्र अग्रवाल ने -आचार्य भगवत दुबे दुष्यंत के पहले और बाद में ग़ज़ल के दो स्वरूप देखन...

मैं लडूं, किसकी तऱफ से इतनी हक़दारी मुझे


मैं लडूं, किसकी तऱफ से इतनी हक़दारी मुझे
हर क़बीला सौंपना चाहता है सरदारी मुझे
मैं बदलने की करूं ख़्वाहिश ज़रा सी भी अगर
चैन से रहने कहां देती है ख़ुद्दारी मुझे 
हां किसी की चाह में डूबा हुआ समझा नहीं
एक दिन ले डूबेगी उसकी तरफ़दारी मुझे.
वक्त, कि़स्मत बेवसी झुंझला रहा धृतराष्ट्र भी
बांध कर पट्टी लगी संतुष्ट गंधारी मुझे.
मैं ग़ज़ल का शुक्रिया वर्षों अदा करता रहूं
हां इसी ने हैसियत दी और दमदारी मुझे
शेर अच्छा है, मगर कुछ तो सलीक़े से पढ़ो
मंच पर अच्छी नहीं लगती अदाकारी मुझे.
मैं फ़क़त शायर समुन्दर पार मेरा नाम है 
यार रूसबा मत करो यूं कहके ज़रदारी मुझे