2.11.2012

ghazal sameeksha: ग़ज़ल कहना मुनासिब है यहीं तक

ghazal sameeksha: ग़ज़ल कहना मुनासिब है यहीं तक: ग़ज़ल के नये जिस्म को नये जेवर दिये हैं,डॉ.महेन्द्र अग्रवाल ने -आचार्य भगवत दुबे दुष्यंत के पहले और बाद में ग़ज़ल के दो स्वरूप देखन...

मैं लडूं, किसकी तऱफ से इतनी हक़दारी मुझे


मैं लडूं, किसकी तऱफ से इतनी हक़दारी मुझे
हर क़बीला सौंपना चाहता है सरदारी मुझे
मैं बदलने की करूं ख़्वाहिश ज़रा सी भी अगर
चैन से रहने कहां देती है ख़ुद्दारी मुझे 
हां किसी की चाह में डूबा हुआ समझा नहीं
एक दिन ले डूबेगी उसकी तरफ़दारी मुझे.
वक्त, कि़स्मत बेवसी झुंझला रहा धृतराष्ट्र भी
बांध कर पट्टी लगी संतुष्ट गंधारी मुझे.
मैं ग़ज़ल का शुक्रिया वर्षों अदा करता रहूं
हां इसी ने हैसियत दी और दमदारी मुझे
शेर अच्छा है, मगर कुछ तो सलीक़े से पढ़ो
मंच पर अच्छी नहीं लगती अदाकारी मुझे.
मैं फ़क़त शायर समुन्दर पार मेरा नाम है 
यार रूसबा मत करो यूं कहके ज़रदारी मुझे

12.25.2011

नई ग़ज़ल के नायक -दुष्यंत 36वीं पुण्यतिथि पर स्मरण


नई ग़ज़ल के नायक -दुष्यंत 
36वीं पुण्यतिथि पर स्मरण
नई कविता की जटिलता, दुरूहता और एक रसता की स्थिति से उत्पन्न मोहभंग के बाद ग़ज़ल जैसी चुकी सुकाई विधा में लौटे आने वाले दुष्यंत अपने जीवन काल के अंतिम क्षणों में भी यह अनुमान न लगा सके  कि वह ग़ज़ल साहित्य में एक नई काव्यधारा का प्रवर्तन कर रहे हं. उनकी ग़ज़लें न सिर्फ अपने परिवेश की जीवंत प्रस्तुति हैं अपितु परिवेश के विरूद्ध संघर्षरत व्यक्ति की प्रतिक्रियायें भी हैं. वस्तुतः दुष्यंत ग़ज़ल साहित्य में सम्पूर्ण क्रांति के जनक हैं, ग़ज़ल परम्परा में ऐसे बिन्दु जहां जन चेतना से जुड़ी हुई नई ग़ज़ल पूर्ण वैभव के साथ दृष्टिगोचर होने लगती हैं. “दुष्यंत ने ग़ज़ल की आधारभूत परम्परागत कोमलता एवं दार्शनिक सौन्दर्यवादी दृष्टि को अलग कर ग़ज़ल को समसामयिक चिंताओं और परिदृश्य से जोड़कर नया रूप, नया शिल्प, नई रचनात्मक बेचैनी और उससे उभरकर निकलने की नई नई संभावनाओं के विविध आयाम दिये.” (1) “दुष्यंत की ग़ज़लों में जो आग है वह उस व्यक्ति की आग है जो सामाजिक विसंगतियों को ध्यान से देखकर और समाजि के बीच रहकर उसके दर्द को पूरी तरह समझते हुए, भीतर ही भीतर सुलग रहा है. व्यक्ति भावना को सामजिक चेतना से जोड़ने का महत्वपूर्ण कार्य दुष्यंत ने किया.”(2) “दुष्यंत के व्यक्तित्व और दुष्यंत की ग़ज़ल में कोई फर्क नहीं था. ऊपर से सौम्य और मधुर, भीतर से समय की कटुता के गरल से सराबोर.”(3)
दुष्यंत की ग़ज़लों की सबसे बड़ी विशेषता है-मौलिकता, और यह मौलिकता काव्य की विषय और वस्तु दोनों के नयेपन से सम्बद्ध है. साधारण शब्दों में असाधारण भावों को सहजता और सरलता से व्यक्त करना उनकी ग़ज़लों का प्रधान गुण है. यथा-
हमको पता नहीं था हमें अब पता चला
इस मुल्क में हमारी हुकूमत नहीं रही.(4)
जनता के लिये, जनता के द्वारा, जनता पर शासन वाले कथित लोकतंत्र की विसंगतियों, विडम्बनाओं और विदु्रपताओं को उन्होंने अपनी ग़ज़लों में बहुत खूबसूरती से बयान किया और चुनावी मौसम में वर्षाती मेढ़कों की तरह टर्राने वाले नेताओं को, ग़ज़ल के लिये निर्धारित शालीनता में रहते हुए कसकर जूता मारा-
तेरी ज़बान है झूठी जम्हूरियत की तरह 
तू एक जलील सी गाली से बेहतरीन नहीं.(5)
वास्तव में इस तरह के अनूठे शेर उनकी सुविकसित चेतना के प्रतिफल ही माने जा सकते हैं जो एक और उन्हें पूरे परिवेश को समझने के लिये एक स्पष्ट और ईमानदार द्रष्टि देेती है. जैसे-शासकीय सेवा में रहते हुये भी आपातकाल में जय प्रकाश नारायण के लिये कहा गया यह शेर-
एक बूढ़ा आदमी है मुल्क में या यों कहो
इस अन्धेरी कोठरी में एक रोशनदान है.(6)
तो दूसरी ओर इसी दृिष्ट को माध्यम बनाकर वह उन्हें आज के आम आदमी से पूरी तरह जोड़ती भी है. इसी दृष्टि के बलबूते वह शासकीय कर्मचारी होने के बावजूद आम आदमी के प्रति अपने लेखनीय दायित्वों का निर्वाह करने के लिये न तो व्यवस्था के सम्मुख नतमस्तक हुए और न ही मौन रह सके-
ये जुबां हमसे सी नहीं जाती
जिन्दगी है कि जी नहीं जाती.(7)
राजनीतिक नेताओं के भाषणों और सरकारी फाइलों से अलग आज के आम आदमी की खस्ताहाल जिन्दगी को उन्होंने बड़े करीब से देखा था, कुछ हद तक भोगा भी था. इसीलिये विकास के थोथे नारों और प्रगति के झूठें आंकड़ों पर उन्होंने कभी विश्वास नहीं किया क्योंकि वह वास्तविक स्थिति से पूरी तरह परिचित थे. यदि यह कहा जाये कि भृष्टाचार में आकंट डूबी हुई इस पूरी व्यवस्था के विरूद्ध आवाज उठाने की आकांक्षा ने ही इन ग़ज़लों को जन्म दिया है तो इसमें कुछ भी अनुचित न होगा. संभवतः इसी कारण उन्होंने अपनी ग़ज़लों का दोहरा उपयोेग किया. जहां कविता को काव्य रूप के अतिरिक्त सामाजिक परिवर्तन के 
साधन रूप में भी प्रस्तुत किया जा सके वहां काव्य की उत्कृष्टता को लेकर कम से कम वर्तमान युग मंे दो मत नहीं हो सकते. दुष्यंत इन संदर्भो में विशिष्ट ग़ज़लकार रहे हैं. उनकी ग़ज़लों में मतले से मकते तक की बनावट, कसाबट और मिसरों में एक सा तनाव एक उत्कृष्ट व पारंगत ग़ज़लकार की छवि को स्फुरित करता है.
दुष्यंत ने पहली बार ग़ज़ल को आदमकद बनाया. युगीन परिस्थितियों और परिवेश से इतनी घनिष्ठता इस विधा की उनसे पहले कभी नहीं रही. उनकी ग़ज़लों में इस दौर के सामाजिक, राजनीतिक मूल्यों तथा इन मूल्यों में हो रहे परिवर्तनों को आसानी से समझा जा सकता है. दुष्यंत परवर्ती ग़ज़लकारों के प्रेरणास्त्रोत भी इसीलिये बन सके क्योंकि उनकी ग़ज़लों में युग की आवश्यकतानुरुप अनुभूति की ईमानदारी है, अपनी मिट्टी की गंध भी है और चारों व्याप्त प्रदूषित परिवेश का प्रभाव भी. व्यवस्था के प्रति असंतोष, आक्रोश और खीझ उनके अंदर सदैव बनी रही, शायद ग्लानि भी, यह जानकर कि वह भी इसी व्यवस्था का एक अंग हैं. वह प्रश्न करते हैं मुझसे, आपसे, उनसे और अपने आपसे-
कैसी मसालें ले के चले तीरगी में आप
जो रोशनी थी वो भी सलामत नहीं रही.(8)
दुष्यंत अपने शेरों के माध्यम से जब व्यवस्था परिवर्तन के लिये क्रांति का आव्हान करते हैं उस विद्रोहात्मक प्रवृत्ति में भी राष्ट्रीयता की गहरी भावना संलग्न होती है. ऐसी भावना जो कि सदैव आशवादी रही है-
एक चिंगारी कहीं से ढंूढ लाओ दोस्तों
इस दिये में तेल से भीगी हुई बाती तो है.(9)
“यदि दुष्यंत कुमार की ग़ज़लोें की, उनको सही परिप्रेक्ष्य में रखकर व्यख्यायें की जाये तो हर ग़ज़ल ही नहीं, हर ग़ज़ल का एक एक शेर हमें मसाल की तरह दिखाई देगा. अपने समय की दुःस्थिति का वास्तविक वर्णन करना और उसे बदलने का आव्हान करना उन ग़ज़लों का वह गुण है जो हमें मसाल की तरह आलोक फैलाकर सही रास्ते पर आगे बढ़ने में सहायक हो सकता है. उनकी मौलिकता इसी में है कि इन्होंने ग़जल सम्बन्धी धारणाओं को पूरी तरह बदलकर रखने की दिशा में सशक्त पहल की है. इन ग़ज़लों द्वारा ग़ज़ल की प्रवृति और लक्ष्य के नये रूपों का उद्घाटन हुआ है.” (10) डाॅ. ब्रह्मेन्द्रनाथ के शब्दों में “दुष्यंत की नई ग़ज़ल प्रजातंत्र के गंगाजल से नहाकर आयी है. इसकी कुंआरी वेदना (शहीदी तकलीफ़) प्रजातंत्र की अंतः पीड़ा है. कविे ने अत्याधिक पैनी लेखनी से प्रजातंत्र के दर्द को उकेरा है. ‘साये में धूप’ एक छोटा सा ग़ज़ल-स्तबक है जिसका प्रत्येक रक्त पुष्प अनुभूति की नोंक में पिरोकर अलंकृत किया गया है. प्रत्येक शेर बुद्धि की तीक्षण छेनी से राष्ट्र के कटु यथार्थ पर प्रहार करता है. इसमें राष्ट्रीय चेतना की आणविक शक्ति है जो सहृदय की रगों में उर्जा संचालित करती है. राष्ट्र की आत्मा की सान्द्र पीर की कसक के कारण ही राष्ट्र के अश्रुजल के गंगाजल कलश को अतिशीघ्र से अभिव्यक्ति दी कि वह बुद्धिवादियों के सुषुप्त भावना लोक को झकझोर देती है.” (11) इसी कारण उन्होंने साहित्य समीक्षकों को न सिर्फ ग़ज़ल की परंपरागत धारणाओं को छोड़कर नये सिरे से सोचने के लिये मजबूर किया अपितु अपनी ग़ज़लो पर पूवाग्रहों से युक्त होकर मूल्यांकन के लिये भी बाध्य किया. उनसे पहले कोई अन्य ग़ज़लकार यह महती उपलब्धि प्राप्त न कर सका. परिणामतः “दुुष्यंत की आवाज ने एकाएक बहुत सी आवाजें पैदा कीं और यह किसी लेखक की रचना और वस्तुदृष्टि का सम्मान है.”(12)
ग़ज़ल को रूमानियत के शिकंजे से मुक्त कराने वाले कवि की ग़ज़लंें भी थोड़ी बहुत रूमानियत से जुड़ी अवश्य हैं अतः यही माना जा सकता है कि दुष्यंत ने ग़ज़ल के फार्म को रूमानियत से  मुक्ति नहीं अपितु पर्याप्त मुक्ति दिलाने के प्रयत्न किये थे क्योकि रूमान ग़ज़ल में धुला-मिला, रचा-बसा तत्व है. मन के मीत की तरह-
एक आदत सी बन गई है तू
और आदत कभी नहीं जाती.(13)
यह भी एक तादात्म्य की स्थिति है, अपनी प्रेयसी अथवा अपनी शायरी अथवा शायरी रूपी प्रेयसी के साथ.इस जुडाव को कवि ने अनेक स्थलों पर स्पष्ट भी किया है-
मैं तुम्हें जरा सा छेड़ देता हूं
और गीली पांखुरी से ओस झरती है.(14)
गीली पांखुरी से ओस का झरना मन को मोह लेने वाला दृश्य मात्र नहीं है वरन् कवि के भीगे हुए अहसासों और तरल अनुभूतियों का शब्दांकन कवि के भाव आकुल संसार की बाह्म अभिव्यक्ति है.
भाषा की दृष्टि से दुष्यंत की ग़ज़लों में आंग्ल शब्दों का प्रयोग बहुत कम है किन्तु हिन्दी-उर्दू को एकरस करने मेे उन्होंने कोई कसर नहीं छोड़ी. यथार्थतः उनकी भाषा लोक भाषा है जिसे हिन्दुस्तानी कहा जा सकता है. भाषा का यह स्वरूप उन्हें लोकप्रिय बनाता है. उनकी ग़ज़लें बदलते हुए समय और संदर्भांें के बीच भी ताजगी और जीवंतता लिये हुए हैं. यही उनके कवि की सफलता है और यही सार्थकता. एक उन्नत और आदर्श समाज व्यवस्था की रचना का संकल्प और सपना लकर ही उन्होंने नई ग़ज़ल के क्षेत्र में अपनी सृजनात्मक प्रतिमा का परिचय दिया है.नई ग़ज़ल के नायक की 36वीं पुण्यतिथि पर उन्हें प्रणाम

12.04.2011

अपनी नज़र से उसने गिराया कहां कहां


अपनी नज़र से उसने गिराया कहां कहां
जिसको इधर-उधर से उठाया कहां कहां
घर में रहें या घर से हों बाहर यहां वहां
नज़रों का नीर हमने छुपाया कहां कहां
ताउम्र हर सफर में दिया साथ किस तरह 
अफ़सोस ज़िन्दगी ने सताया कहां कहां
अब तो इसी मुकाम से ये देखना भी है
चलता है मेरे साथ में साया कहां कहां
दुश्वारियों के साथ समझना है ये हमें
अपना यहां पे है तो पराया कहां कहां
आखिर किसी पड़ाव पे देखूं मैं ज़िन्दगी
ये ख़्वाब किस तरह से सजाया कहां कहां 

11.21.2011

देखकर यूं, शरीर नज़रों से


देखकर यूं, शरीर नज़रों से 
खींच दी इक लकीर नज़रों से
तजरुबा इश्क में, हुआ हमको 
हो गए हम फ़क़ीर नज़रों से.
यार, एहसास तक चला आया
सर्द आंखों का नीर नज़रों से.
देखते देखते ही वो ज़ालिम 
फेंक देता है तीर नज़रों से.
खुद को रांझा समझ लिया उसने 
लग रही है वो हीर नज़रों से.
खु़द को माहिर समझ लिया कैसे?
शेर कहते थे मीर नज़रों से.