11.01.2011

बुज़ुर्गों का पसीना ही ज़मीनों से उगाता हूं..,.


बुज़ुर्गों का पसीना ही ज़मीनों से उगाता हूं
है जितना खर्च मैं उससे कहीं ज़्यादा कमाता हूं
कई सपने अधूरे रह गये थे मां की आंखों में
वो नज़रें सामने रखता हूं वो रिश्ते निभाता हूं
बड़े विश्वास से वालिद ने सौंपी थी मुझे पगड़ी
मैं उसकी शान में शोहरत तेरी कलगी लगाता हूं
ये कोई खेल है तो हार कर बैठा नहीं पल भर
बिगड़ते हैं तो फिर परिवार के रिश्ते जमाता हूं
मिली है सल्तनत खै़रात में जो चंद बरसों की 
बहू बेटों में उनके नाम के सिक्के चलाता हूं

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