11.21.2011

देखकर यूं, शरीर नज़रों से


देखकर यूं, शरीर नज़रों से 
खींच दी इक लकीर नज़रों से
तजरुबा इश्क में, हुआ हमको 
हो गए हम फ़क़ीर नज़रों से.
यार, एहसास तक चला आया
सर्द आंखों का नीर नज़रों से.
देखते देखते ही वो ज़ालिम 
फेंक देता है तीर नज़रों से.
खुद को रांझा समझ लिया उसने 
लग रही है वो हीर नज़रों से.
खु़द को माहिर समझ लिया कैसे?
शेर कहते थे मीर नज़रों से.

1 comment:

  1. तुम्हारी याद का जब भी मौसम गुजरता है,
    बीरान पतझड़ में दर्द भी हर गुल महकता है !

    निभ नहीं पाती तुम्हारी क्यों किसी से भी,
    तुम्हारा साया भी देखो मेरे ही साथ चलता है !

    बदल जाती है उसकी फितरत रोज ही लेकिन,
    जो लिखा है नसीबो में, वो कब बदलता है !

    खुदा जाने मुझे देख वो आहें भरता हो शायद,
    उस देखकर मेरा दिल तो अब भी मचलता है !

    जाने क्यों उसे मै अच्छा नही लगता प्रदीप,
    बरना हर कोई मेरी निगहबानी को तरसता है !

    प्रदीप अवस्थी शिवपुरी

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